विंध्याचल
पर्वत श्रेणी में कैमूर पर्वत स्थित चुनारगढ़ चरण के आकार की आधा मील
चौड़ी एवं 1 मील लम्बी पहाड़ी पर वाराणासी से 45 किली मीटर की दूरी पर
स्थित है। किंवदन्ति है कि जब भगवान विष्णु ने राजा बलि से तीन पग जमीन
मांगी थी तब उन्होने वामन अवतार लेकर अपना पहला चरण इस स्थान पर ही रखा था।
भगवान के चरणरज इस पहाड़ी पर पड़ने के कारण इसका नाम चरणाद्रिगढ़ पड़ा।
चुनारगढ का संबंध द्वापर युग से भी जोड़ा जाता है।
कहते हैं कि जरासंध ने
पराजित राजाओं की 16 हजार रानियों को इस किले के विशाल अंधकारमय तहखाने में
कैद किया था। यहाँ पर गंगा जी में जरगो नामक नदी आकर मिलती है तथा जरगो
नदी पर बांध भी बना हुआ है। किवंदन्तियों, जनश्रुतियों एवं मान्यताओं के
आधार पर इस स्थान की प्राचीनता एवं पौराणिकता सिद्ध होती है। इस गढ़ का
निर्माण बलुए पत्थर से हुआ है।
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कभी गंगा के इसी मैदान में सेनाएं आमने सामने होती थी |
चुनारगढ़ के भवनों को देखने से प्रतीत होता है कि इनका निर्माण भिन्न भिन्न
कालखंडों में हुआ है अर्थात यह गढ़ भिन्न भिन्न काल में भिन्न भिन्न
शासकों का शासन केन्द्र रहा। प्राचीन हिन्दू, राजपूत, मुगल, ब्रिटिश
स्थापत्य शैली से निर्मित भवन दिखाई देते हैं। गढ़ में मुख्य द्वार के बाईं
तरफ़ मेहराबदार द्वार दिखाई देता है जिन पर उर्दू में लिखा है। मुगल शैली
के भवन मेहराबदार होते थे। इससे स्थापित होता है कि गढ़ पर मुगलों का कब्जा
भी रहा है। राजा भृतहरि की समाधि वाला भवन हिन्दू स्थापत्य शैली में
निर्मित है तथा रानी झरोखा राजपूत शैली का है। गढ़ में स्थित कारागार एवं
विश्रामगृह ब्रिटिश शैली का होने के कारण ब्रिटिश शैली में निर्मित है।
जाहिर है कि मिश्रित स्थापत्य शैली के इस गढ़ पर अंग्रेजों का भी कब्जा था।
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सैनिकों की बैरकें |
अगर
चुनारगढ़ के इतिहास पर दृष्टिपात करे तो ज्ञात होता है कि बंगाल पर
शासन करने के लिए चुनारगढ़ अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान था। शासन करने की
दृष्टि से आक्रमणकारियों को चुनारगढ़ पर कब्जा करना अत्यावश्यक रहा होगा।
जनश्रुति है कि इस चरणाद्रिगढ़ (चुनारगढ़) का निर्माण राजा विक्रमादित्य ने
भ्राता
राजा भृतहरि (भरथरी) के सन्यास (वनवास ) काल में उनके निवास के लिए
बनवाया था। मीरजापुर गजेटियर के अनुसार इस गढ़ का निर्माण 56 ईं पू हुआ
था। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि यह गढ़ 7 वीं शताब्दि में निर्मित हुआ था।
इसके दोनो तरफ़ गंगा प्रवाहित होती है। गजेटियर के अनुसार इस किले पर
राजपूतों, मुगलों, अफ़गानों एवं अंग्रेजों का आधिपत्य रहा है।
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स्थापत्य शैली का मिश्रण-कारागार एवं भृतहरि समाधि भवन |
प्राप्त अभिलेखों से जानकारी मिलती है कि उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य के
पश्चात इस गढ़ पर 1166 से 1191 तक पृथ्वीराज चौहान का आधिपत्य रहा। 1192
ईंस्वी में शहाबुद्दीन गौरी से पृथ्वीराज चौहान तराईन के युद्द में पराजित
हो गया। दिल्ली पर गौरी का कब्जा होने से चुनारगढ़ स्वत: उसके नियंत्रण में
आ गया। शहाबुद्दीन गौरी की मृत्यु कुतबुद्दीन ऐबक गद्दी पर बैठा। 1333
ईस्वीं में किसी स्वामीराज के आधिपत्य का जिक्र आता है। मैने कहीं
स्वामीराज का जिक्र नहीं पढा। चुनारगढ़ के इतिहास का कुछ कालखंड विलुप्त
है। 1445 ईस्वीं से जौनपुर के मुहम्मदशाह शर्की, 1512 ईस्वीं से सिकन्दर
शाह लोदी, 1529 से बाबर के कब्जे में रहा।
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सोनवा मंडप का गलियारा |
1530 में बाबर की मृत्यु के पश्चात 1529 ई. में बंगाल शासक नुसरतशाह को
पराजित करने के बाद शेरशाह सूरी ने हजरत आली की उपाधि ग्रहण की। 1530 ई.
में उसने चुनार के किलेदार ताज खाँ की विधवा लाडमलिका से विवाह करके चुनार
के किले पर अधिकार कर लिया। शेरशाह सुरी ने इस गढ़ का पुनर्निर्माण कराया।
1532 ईस्वीं में हुमायूँ ने चुनार के गढ़ पर आधिपत्य स्थापित करने के इरादे
से घेरा डाला। 4 महीने के घेरे के बाद भी इस गढ़ को नहीं जीत पाया। फ़िर
उसने शेरशाह से संधि कर ली और गढ़ शेरशाह के पास ही रहने दिया। 1538 में
हुमायूँ ने अपनी अपने तोपखाने के साथ गढ पर पुन: आक्रमण किया तथा चालाकी से
गढ़ पर कब्जा कर लिया।
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प्रस्तर निर्मित कारागार |
इसके पश्चात यह गढ़ 1545 से 1552 तक इस्लामशाह कब्जे में रहा। 1561 ईस्वीं
में अकबर ने अफ़गानों को हरा कर इस पर कब्जा किया। 1575 से अकबर के
सिपहसालार मिर्जामुकी और 1750 से मुगलों के पंचहजारी मंसूर अली खां का शासन
इस गढ़ पर था। तत्पश्चात 1765 ई. में किला कुछ समय के लिए अवध के नवाब
शुजाउदौला के कब्जे में आने के बाद शीघ्र ही ब्रिटिश आधिपत्य में चला गया।
शिलापट्ट पर 1781 ई में वाटेन हेस्टिंग्स के नाम का उल्लेख अंकित है।
अंग्रेजों की तोपखाना पलटन यहाँ रहा करती थी। उन्होने भी यहाँ निर्माण
कार्य करवाया। द्वितीय विश्व युद्ध के युद्धबंदियों को इस गढ़ में रखने का
उल्लेख मिलता है। 1942 के महाजागरण के राष्ट्रवादी बंदी भी इस गढ में रखे
गए थे।
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कब्रों में दफ़्न अंग्रेज |
इतिहास में दर्ज है कि चुनारगढ़ ने निरंतर युद्ध अपने वक्ष पर झेले। अनेकों
राजाओं के फ़ांसी घर के रुप में भी यह कुख्यात रहा। सिर कटा कर सिद्धी
प्राप्त करने वालों का भी स्थान रहा है। काली मंदिर में शीश चढाने लोग चले
आते थे। इसने शासकों के सभी रंग - ढंग और ठसके देखे। गढ़ के समीप बनी
अंग्रेजों की कब्रें चुनारगढ़ के इतिहास की मूक गवाह हैं। इन कब्रों में
पता नहीं कहाँ कहाँ के अंग्रेज दफ़्न पड़े हैं। कब्रों पर उनके नाम के लिखे
शिलापट ही अब उनकी पहचान रह गए हैं। समय की मार से ये शिलापट भी धूल
धुसरित हो जाएगें। उनके नाम फ़ना हो जाएगें जो हाथ में हंटर लेकर तोपखाने
और बंदूकों के बल पर शासन करते थे। समय की मार से कुछ नहीं बचा इस नश्वर
लोक में।
वे सब धराशायी हो गए जिन्हें बलशाली होने का गुमान था। अगर वे
जिंदा हैं तो सिर्फ़ किस्से कहानियों में और इतिहास की गर्द से भरी किताबों
में। मेरे जैसा कोई घुमक्कड़ जब आता है तो उन किताबों का गर्द झाड़ कर एक
बार इतिहास पर दृष्टिपात कर लेता और पुन: कब्र से निकल पड़ता है टुटवा गोरा
साहब हाथ में चमड़े का हंटर लिए।
Credits: Lalitdatcom
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