इस दरगाह में पूरा रोजा मिन्नते मानने वाले और सजदा करने वालो से भरा हुआ होता है पूरे माहौल में लोहबान तथा अगरबत्तियों की खुशबू तैरती रहती है मजार पर कोई चादर चढाता है तो कोई शीरनी और माला बाबा को माथा टेकने वाले #हिन्दू- मुसलमान# दोनों है ।
यह अकबर और जहाँगीर के समकालीन सुप्रसिद्ध संत कासिम सुलेमानी की दरगाह है यह स्थान है मीरजापुर जनपद का ऐतिहासिक नगर चुनार गंगा तट पर स्तिथ यह दरगाह किसी गंगा-जमुनी की तहजीब से कम नही प्राकृतिक शुषमा से भरपूर इस दरगाह का यह क्षेत्रफल 30 बिघे मैं है
यहा साल में दो बार मेला लगता है दूर-दूर से लोग इस अवसर पर अपनी फरियाद लेकर हाजिरी लगाते है बाबा के दरवार में कहते है कि यहा मिन्नत मानने वाले कि मुराद जरूर पूरी होती है बाबा के दरगाह पर पहला मेला जमादेउल अव्वल की 17 वी से 19 तारीख अक्टूबर नवम्बर के उर्स अवसर पर अखिराजे अकीदत पेश करने के लिए और दूसरी बार हिन्दू के चैत्र महीने के हर बृहस्पतिवार को लगता है पाँचवे जुमेरात धोबिया मेला के नाम से विख्यात है इसमें हिन्दुओ की भी तादाद काफी होती है
पंजाब के पेशावर में कुछ दूरी पर बहती है बद्री नदी इसी के निकटतम गांव के अफ़ग़ान वंश में हजरत सुलेमानी का जन्म 956 हिजरी अर्थात 1549 ई. में हुआ था इनके पूर्वज सुलेमानी भूखण्ड के निवासी थे इसीसे इन्हें सुलेमानी कहा जाता है इनके पूर्वज भी सन्त थे इस कारण इनका भी झुकाव इश्क-हक़ीक़ी और अध्यात्म की ओर शुरू से रहा यह 27 साल के उम्र में ही सात साल तिरिथ पर निकल पड़े बाबा मक्का,मदीना,करबला बगदाद,बसरा,नजफ़,यरुसलम,और सीरिया ह्यूमा तक गए ह्यूमा इनके (पीरे-मुर्शिद) आध्यात्मिक गुरु का स्थान है
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इसलिए वहा दो बार गए तथा तेरह महीने रहकर अपने पीर की खिदमत की पीर हजरत अफीउदीन हुसैन प्रशिद्ध संत अब्दुल कदर जिलानी गौसे आजम पिराने -पीर बगदाद के दस्तगीर के वंशज थे बगदाद के सुन्नी मुसलमान उनका बड़ा सम्मान करते थे
उनसे उच्च ज्ञान प्राप्त करके सुलेमान लौट आये और अपने सन्त स्वभाव तथा परोपकारी प्रवित्ति के कारण बहुसंख्यक शिष्यो के गुरु बने रहे इस बात से इनके ईष्यालु सन्तुष्ट नही हुए जब अकबर के बाद जहाँगीर गद्दी पर बैठा और अपने पुत्र खुसरो का दमन करने लाहौर गया तब बताया गया कि सन्त उसके पुत्र का समर्थक है
जहाँगीर ने इस बात का विश्वास करके इनके पास एक थाल में तलवार तथा दूसरे में हथकड़ी रखकर भेजा खून -खराबे से दूर सन्त ने हथकड़ी कुबूल की इस प्रकार सन्त को बन्दी बनाकर हिजरी 1015 (1606) ई. में चुनार के लिए रवाना किया गया इस गिरफ्तारी के पूर्व ही सन्त क़ासिम ने भविष्यवाणी कर दी थी वह शीघ्र ही अपने वतन तथा शिष्यो से अलग होने वाले है
बन्दी संत की टोली जब चुनार में गंगा तट के पास पहुची तो उन्होंने एक सेवक से मिट्टी के पात्र में जल लाने को कहा जल लाते समय पात्र सेवक के हाथ से टूटकर गिर गया यह देखकर संत ने कहा कि उनके जीवन का अंतिम क्षण निकट है और उनकी समाधि चुनार में ही बनेगी बाद में उनका कथन स्तय निकला चुनार के किले में बन्दी रूप में उन्होंने बन्दी रूप में जो चमत्कार किये उससे सम्राट को यकीन हो गया की ये अराजकता के प्रचारक नही है बल्कि पहुचे हुए संत है
बाद में जहाँगीर ने इनसे मिलने की अनुमति चाही लेकिन संत ने इन्कार कर दिया कहा जाता है किले के भैरो बुर्ज पर स्तिथ आलमगीरी मस्जिद पर नमाज के वक्त इनकी हथकड़ी खुद ब खुद खुल जाती थी इसी भैरो बुर्ज से एक दिन इन्होंने एक तीर छोड़ा और शिष्यो को आदेश दिया कि यह तीर जहा गिरे वही इन्हें दफन किया जाए तीर पहले उस स्थान पर गिर रहा था जहाँ बस्ती थी तब संत ने कहा टुक अर्थात और थोड़ा आगे इतना कहते ही तीर और थोड़ा आगे जाकर गिरा और उसी स्थान पर बाद में आगे जाकर उनका भव्य मकबरा बना कालांतर में तब से इस बस्ती को बाबा के टक शब्द के वाणी से इस बस्ती को #टीकौर# कहा जाने लगा
बाबा साहब की मृत्यु 1016 हिजरी (1607) ई . के जमादेउल अव्वल की 19 वे को हुई थी उनका शव 6 महीने तक सुरक्षित रखा गया वह कमरा आज भी उनके पुत्र मुहम्मद वसूल के समाधि के निकट है आज का वर्तमान मकबरा इनके पुत्र मुहम्मद वसील ने बनवाया था बाद में जहाँगीर ने 30 बीघे भूमि जमीन कर मुक्त इस दरगाह को दी थी बाद में शाहजहाँ ने भी 50 बीघे जमीन तथा बादशाह फरुखसियार ने बंगपुर ग्राम अनुदान में देकर दरगाह के इजन्ताम तथा खर्चे की मुकम्मल व्यवस्था की आगे चलकर संत के पुत्रों तथा पोत्रो की भी समाधि स्थल यहा बनी दरगाह के नक्काशी दरवाजा स्थापत्य कला का भव्य नमूना है
इस विशाल द्वार पर सभी स्थान पर नक्काशी है तथा मेहराब पर ख़ूबसूरत झालरे बनी हुयी है संत के मकबरे के गुम्बद की छत में जो चित्रकारी की गई है इसकी रंग सज्जा बहुत सुंदर है वह 400 वर्षो के बाद भी खराब नही हुई है
दरगाह शरीफ के दर्शनीय स्थल-
गंगा के सुरम्य तट पर 30 बीघे में स्थापित का अपना आध्यात्मिक महत्त्व है यहा संत सुलेमानी तथा इनके पुत्र मुहम्मद वासील की समाधिया भी है सुलेमानी संत के दो स्त्रियां जिनके नाम थे खदीजा बीबी और माही बीबी खदीजा बीबी की मृत्यु संत के बन्दी बनाने के पूर्व लाहौर में हो चुकी थी किन्तु मुहम्मद कबीर की माँ और बीबी माही चुनार आयी और मृत्युअपोरान्त यही दफन की गयी
यह स्थान चुनार रेलवे स्टेशन और बस स्टेशन से मात्र 1 किलो मीटर की दूरी पर है इस स्थान पर खलीफा की नियुक्ति होती है जिसे सज्जदा नशीन कहा जाता है और इनकी पदवी दिवान होती है 1930 ई के दशक में इसके खलीफा अमानतुल्ला दिवान थे ये उद्यान और प्रशाद प्रेमी थे इसके बाद खलीफा बने जाहिद हुसैन दिवान ये सूबे में मशहूर शिकारी थे अंग्रेज और भारीय शिकारी इन्हें अपने साथ ले जाया करते थे जिन्होंने एक बार एक साथ पांच शेरो का शिकार करके लोगो को चकित कर दिया आतिथ्य सत्कार में भी इनका मुकाबला न था ये रचनात्मक रुचि के राष्ट्रप्रेमी व्यक्ति थे और मुस्लिम सम्प्रदाय में इनका कथन का पालन आदर से होता रहा
।।नक्काशी दरवाजा और सावन भादो।।
यह दरगाह का प्रवेश द्वार है यह स्थापत्य और वास्तुकला का अप्रितम नमूना है आज से चार सौ साल बाद इसका निर्माण यही के बलुआ पत्थरो से किया गया था यह मुगलकालीन नक्काशी तथा चुनार के कारीगरों की बेहतरीन उपलब्धि है इसी के पास खलीफा के आवास में सावन ,भादो का निर्माण हुआ है यह एक कमरा है जिसकी छत और दीवारो के ऊपरी भागो में अनेक फव्वारे लगे हुए है फर्श के बीच के छोटे तालाब में फौव्वरो का जल गिरता है सभी फव्वारों को चलने से वर्षा का दृश्य दिखता था इसी से इसका नाम सावन भादो पड़ा
रंग महल# -
यह स्थान सावन भादो से ठीक सामने है जिसके दोनो ओर बरामदे है यह रमणीक और हवादार स्थान है ।
बहुत शुक्रियाजानकारी देने के लिए
ReplyDeletethanku
Deletebdhiyआ जानकारी ।
ReplyDeleteBahut shukria jankari dene ke liye lekin lnkebare me zayada malumat keliye tareekhe sabeeh shahjahanpur ko parhen.
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