महमूद गजनवी के शाशनकाल 11 वी शताब्दी के आरम्भ में फिरौदौसी द्वारा लिखे @शाहनामा@ में वर्णित है की फारस के राजा कैकस , जो की तुर्किस्तान के राजा का दामाद था और भारत के सुप्रशिद्ध वीर रुस्तम का शिष्य था पहले चीन की ओर गया और वहा बस गया बाद में वहां की जलवायु उपयुक्त न होने के कारण वह गंगा की मैदान की ओर बढ़ा गंगा के मैदान का यह भाग उसे अच्छा लगा जो पहाड़ियों और जंगलों से घिरा था उसने यही गंगा के पहाड़ी पर एक किला बनवाया वैसे गंगा के किनारे बने कन्नौज ,इलाहाबाद,झूसी पाटिलपुत्र (पटना) और चुनार के दुर्ग है तब फिर फिरौदौसी का आशय क्या है यह शोध का विषय है ।
चुनार दुर्ग की स्थापत्य कला और भित्तिचित्र
इस दुर्ग के बाहरी हिस्से को जहा गंगा की लहरे सदा स्पर्श करती रहती है वही अकबर द्वारा सन,1586 ई. में जल फाटक नाम से एक द्वार बनवाया गया था इस द्वार के ऊपर और चट्टानों के मध्य में गुप्त स्थान पर एक पुरुष और एक स्त्री के चित्र पत्थर पर अंकित है यही कुछ अन्य चित्र भी है किन्तु ये स्पष्ट नही है ।
ये पास-पास बने है इनके वस्त्र मध्यकालीन न होकर पूराऐतिहासिक काल के जाने पड़ते है यह चित्र दुर्ग के निर्माण के समय बनाये गए लगते है इन चित्रों के ठीक सामने दूसरी ओर खिड़की घाट के ऊपर जहा नाव द्वारा पहुचा जा सकता है सात अन्य चित्र दुर्ग की पहाड़ी के बाहरी चट्टान पर खुदे हुए है ये भी प्रागेतिहासिक काल के लगते है ।
इसी प्रकार दुर्ग के भीतर बनी बावली में नीचे उतरने पर कुछ जंगली जानवरों ,तीर -धनुष और हथियारों के चित्र बने हुए है
दुर्ग के बाहरी हिस्से में भी दक्षिण की ओर जहा दुर्ग का स्वरूप पाँव का एड़ी की तरह है और जिसके ठीक ऊपर दुर्ग के भीतर आलमगीरी मस्जिद बनी हुयी है यहा औरंगजेब ने नमाज पढ़ी थी वही एक गुफा मंदिर भी है ।
इस दुर्ग में सोनवा मण्डप के विशाल प्रांगण में एक भव्य और काफी लम्बा सभागार बना हुआ है महान तपस्वी भृतहरि की समाधि भी इसी कलात्मक सभागार के ठीक बाहर है इस सभागार में हवा एवं प्रकाश के लिए बड़े-बड़े झरोखे (मुक्के) बने हुए है
यह सम्मपूर्ण सभागार पत्थरो से निर्मित है इसे स्थापत्य कला का सुंदर नमूना कहा जाता है इस सभागार के अंदर लगे खम्भो के पाटन पर बहुत सुंदर नक्काशी की गयी है इन पत्थरों पर उकेरे गए चित्र अत्यंत कलात्मक है इसी सभागार के पूर्व तरफ जो झरोखा मुगलकालीन के बारादरी की ओर खुलता है इसकी नक्काशी देखते ही बनती है । इसी झरोखे के ऊपर एक स्थान पर किसी गुप्त लिपि का प्रयोग किया गया है,जिसे अभी तक पढा नही जा सका रानिया इसी स्थान पर बैठकर सभागार की कार्यवाही देखती थी ।
सोनवा मण्डप भी स्थापत्य कला का एक भव्य नमूना है इसका निर्माण ऐसे ढंग से हुआ है की इसमे रहने पर सर्दी और गर्मी का आभास बहुत कम होता है इसकी दीवारे लगभग 5 फुट चौड़ी है तथा इन दीवारों के भीतर ही भीतर सीढिया बनी हुयी है यह आश्चर्यजनक तथ्य है
इसके निकट ही जो गर्भगृह या तहखाना बना है और जिसकी लम्बाई -चौड़ाई 60/50 फुट है इसके अंदर बने खम्भो के बेलबूटे अब भी दिखायी पड़ते है लेकिन इसके नीचे उतरना थोड़ा कठिन है यही जरासन्ध का भी बन्दीगृह हो सकता है इसी स्थान से अनेक जगहों तक जाने की सुरंगे बनी हुयी है ऐसी मान्यता अब तक भी है इसके अंदर जाने पर यह विवाह मण्डप जैसा दिखने लगता है । सोनवा मण्डप से इसका आंतरिक सम्बन्ध अवश्य हो सकता है इसी के निकट भृतहरि के समाधि का कक्ष है ।
इसी समाधि कक्ष के बगल के कमरे में काशी नरेशो के यहा की शादिया होती थी ऐसा इस सोनवा मण्डप के चारो द्वार पर शेरशाह सूरी के समय के कुछज शिलालेख भी अंकित है ।
कुछ फ़ारसी शिलालेखों के हिंदी अनुवाद-
(1) शहस्त्रो धोय एव अभिप्रायः लेकर तुम शहस्त्रो वर्ष जीवीत रहो क्योकि तुम्हारे दीर्घ जीवन से शहस्त्रो बाते सम्बन्धित है ।
(2) यह सभा सर्वशक्तिमान से दीर्घ प्राथना करती है की प्रलय के दिन तक शेरशाह का शाशन अचल रहे वर्ष 949 हिजरी । अर्थात 1585 ई. के लगभग ।
चुनार दुर्ग की स्थापत्य कला और भित्तिचित्र
इस दुर्ग के बाहरी हिस्से को जहा गंगा की लहरे सदा स्पर्श करती रहती है वही अकबर द्वारा सन,1586 ई. में जल फाटक नाम से एक द्वार बनवाया गया था इस द्वार के ऊपर और चट्टानों के मध्य में गुप्त स्थान पर एक पुरुष और एक स्त्री के चित्र पत्थर पर अंकित है यही कुछ अन्य चित्र भी है किन्तु ये स्पष्ट नही है ।
ये पास-पास बने है इनके वस्त्र मध्यकालीन न होकर पूराऐतिहासिक काल के जाने पड़ते है यह चित्र दुर्ग के निर्माण के समय बनाये गए लगते है इन चित्रों के ठीक सामने दूसरी ओर खिड़की घाट के ऊपर जहा नाव द्वारा पहुचा जा सकता है सात अन्य चित्र दुर्ग की पहाड़ी के बाहरी चट्टान पर खुदे हुए है ये भी प्रागेतिहासिक काल के लगते है ।
इसी प्रकार दुर्ग के भीतर बनी बावली में नीचे उतरने पर कुछ जंगली जानवरों ,तीर -धनुष और हथियारों के चित्र बने हुए है
दुर्ग के बाहरी हिस्से में भी दक्षिण की ओर जहा दुर्ग का स्वरूप पाँव का एड़ी की तरह है और जिसके ठीक ऊपर दुर्ग के भीतर आलमगीरी मस्जिद बनी हुयी है यहा औरंगजेब ने नमाज पढ़ी थी वही एक गुफा मंदिर भी है ।
इस दुर्ग में सोनवा मण्डप के विशाल प्रांगण में एक भव्य और काफी लम्बा सभागार बना हुआ है महान तपस्वी भृतहरि की समाधि भी इसी कलात्मक सभागार के ठीक बाहर है इस सभागार में हवा एवं प्रकाश के लिए बड़े-बड़े झरोखे (मुक्के) बने हुए है
यह सम्मपूर्ण सभागार पत्थरो से निर्मित है इसे स्थापत्य कला का सुंदर नमूना कहा जाता है इस सभागार के अंदर लगे खम्भो के पाटन पर बहुत सुंदर नक्काशी की गयी है इन पत्थरों पर उकेरे गए चित्र अत्यंत कलात्मक है इसी सभागार के पूर्व तरफ जो झरोखा मुगलकालीन के बारादरी की ओर खुलता है इसकी नक्काशी देखते ही बनती है । इसी झरोखे के ऊपर एक स्थान पर किसी गुप्त लिपि का प्रयोग किया गया है,जिसे अभी तक पढा नही जा सका रानिया इसी स्थान पर बैठकर सभागार की कार्यवाही देखती थी ।
सोनवा मण्डप भी स्थापत्य कला का एक भव्य नमूना है इसका निर्माण ऐसे ढंग से हुआ है की इसमे रहने पर सर्दी और गर्मी का आभास बहुत कम होता है इसकी दीवारे लगभग 5 फुट चौड़ी है तथा इन दीवारों के भीतर ही भीतर सीढिया बनी हुयी है यह आश्चर्यजनक तथ्य है
इसके निकट ही जो गर्भगृह या तहखाना बना है और जिसकी लम्बाई -चौड़ाई 60/50 फुट है इसके अंदर बने खम्भो के बेलबूटे अब भी दिखायी पड़ते है लेकिन इसके नीचे उतरना थोड़ा कठिन है यही जरासन्ध का भी बन्दीगृह हो सकता है इसी स्थान से अनेक जगहों तक जाने की सुरंगे बनी हुयी है ऐसी मान्यता अब तक भी है इसके अंदर जाने पर यह विवाह मण्डप जैसा दिखने लगता है । सोनवा मण्डप से इसका आंतरिक सम्बन्ध अवश्य हो सकता है इसी के निकट भृतहरि के समाधि का कक्ष है ।
इसी समाधि कक्ष के बगल के कमरे में काशी नरेशो के यहा की शादिया होती थी ऐसा इस सोनवा मण्डप के चारो द्वार पर शेरशाह सूरी के समय के कुछज शिलालेख भी अंकित है ।
कुछ फ़ारसी शिलालेखों के हिंदी अनुवाद-
(1) शहस्त्रो धोय एव अभिप्रायः लेकर तुम शहस्त्रो वर्ष जीवीत रहो क्योकि तुम्हारे दीर्घ जीवन से शहस्त्रो बाते सम्बन्धित है ।
(2) यह सभा सर्वशक्तिमान से दीर्घ प्राथना करती है की प्रलय के दिन तक शेरशाह का शाशन अचल रहे वर्ष 949 हिजरी । अर्थात 1585 ई. के लगभग ।
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