सिद्धपीठ दुर्गाखोह चुनार
कहते है ऋषि अगस्त्य ने चुनार से ही अपनी दक्षिण भारत की यात्रा आरम्भ की थी जहाँ विन्धयाचल उन्हें साष्टांग प्रणाम मुद्रा में आज तक लेटा हुआ है अगस्त्य से जुड़ने के कारण ही चुनार को दक्षिण भारत का प्रवेश द्वार कहा जाता है आज वर्तमान में चुनार बस स्टेशन से जो मार्ग दुर्गाखोह होते हुए सिद्धनाथ की दरी तक जाता है
जैसे प्रकृतिक ने अपना सम्पूर्ण वैभव यहा विखेर रखा हो चारो ओर सघन वनराजी और झाड़ियों के मध्य बहते झरनों का संगीत सैलानियों मंत्रमुघ्ध कर देता है इस स्थल के प्रवेश द्वार पर दुर्गा खोह है यह स्थान पौराणिक काल से तंत्र साधना का सिद्धपीठ रहा है अनेक तांत्रिक साधनों की यह भूमि सर्वदा से लोगो के कौतूहल का केंद्र रही है कहते है देश के 51 शक्तिपीठो में इसका भी स्थान है और यहा पर भी सती के अंग गिरे थे
यही पर विंध्य पर्वत शिखर भगवती दुर्गा का मंदिर वर्तमान है कहा जाता है काशी खण्ड में एक कथा आती है जिसके अनुसार रुरु दैत्य के पुत्र दुर्ग के तप पर प्रशन्न होकर ब्रम्हा ने उसे अजय होने का वर दिया था पर दुर्ग ऋषिमुनियों तथा देवी देवताओं को कष्ट देने लगा तब सभी देवी देवताओं ने शिव से रक्षा की गुहार की शिव ने देवी पार्वती से दुर्ग का वध करने अनुरोध किया
तब देवी पार्वती ने अपनी शक्ति से काल रात्रि में सुंदर स्त्री के रूप में प्रकट करके दैत्यों के पास भेजा दुर्ग ने आदेश दिया की इसे मेरे पास ले आओ दैत्यों ने ज्यो ही कालरात्रि को पकड़ना चाहा की वे उनके दिर्गस्वाश से भष्म हो गए इस दृश्य को देखकर दुर्ग अपनी विशाल सेना लेकर कालरात्रि से युद्ध करने चला काल रात्रि तब #चुनार# स्तिथ इसी विंध्यपर्वत पर देवी पार्वती के पास आ गयी
उसी समय दैत्य दुर्ग भी अपनी सेना लेकर यहा आया देवी दुर्ग की ये धृष्टता क्रोधित हो गए उन्होंने सहज भुजा धारण कर दुर्ग और उसकी सेना का संघार कर दिया इस पर देवताओं ने भगवती उमा की स्तुति की तथा उन्हें दुर्ग का वध करने के कारण दुर्गा नाम से अभिहित किया दुर्गा खोह पहुचने पर नीचे सीढ़ियों से उतरना पड़ता है जहाँ सीढ़िया नीचे समाप्त होती है वही पर देवी दुर्गा के प्रकट होने का वर्णन मिलता है
बाद में राजा सूरत द्वारा देवी की प्रतिमा सामने की चोटी पर स्थापित करके वहा पर भव्य मन्दिर की स्थापना की वैसे यह सत्य है कि यह स्थान तंत्र साधना के लिए सर्वथा उपयुक्त है इस प्रवेश के प्रांगण में प्रवेश करते ही बाये हाथ अपने समय के सिद्ध साधक कमल गिरी की समाधि है इन्होंने यहा पर जीवित समाधि ली थी लेकिन यही का जब एक व्यक्ति वर्षो पश्चात जगन्नाथ जी के मंदिर में दर्शन करने गया तो वहा कवल गिरी को देखकर उनके चरणों में गिर पड़ा
दुर्गा खोह का वर्तमान स्वरूप दो भागों में विभक्त है घाटी के इस पर देवी का प्राचीन प्राकट्य स्थल है और उस पार के पर्वत खण्ड पर वर्तमान मन्दिर है इस घाटी में वर्षा काल में एक छोटा जल प्रपात गिरता है यह प्रपात कुण्ड में गिरकर फिर इन्ही घाटियों से होता हुआ मैदान में पहुचकर भगीरथी गंगा में मिल जाता है यहा पावस ऋतू में कुंड में लोग स्नान करते है तथा कुंड के किनारे बने ऊंचे चबूतरे और भवनों से कूदते है वर्षाकाल आते ही झरने का संगीत सुनाई पड़ने लगता है
इस कुण्ड के ऊपर दोनों ऊपर सुन्दर दालान तथा कमरे बनवा दिए गए है सबसे पहले बाबू हनुमान प्रशाद ने तथा अन्य व्यक्तियों ने भी यहा निर्माण कार्य कराया है जिसमे लोग भोजन बनाते है विश्राम करते तथा आवश्यकता होने पर ठहरते है
इस कुण्ड की निर्माण की भी अदभुत कथा है जिसे स्वर्गीय भानु प्रताप तिवारी ने सन, 1880 में प्रकाशित अपनी पुस्तक चुनार का इतिहास में वर्णन किया है जिसमे दुर्ग की वध की कहानी लिखी गयी है तथा राजा सूरथ का भी नाम आया है
यह पुस्तक के अनुसार दुर्ग के वध के पश्चात यहा इतना रुधिर बहा की इससे इस स्थान पर एक कुण्ड निर्मित हो गया इसके पश्चात भगवान् श्री राम ने वनगमन के पश्चात इधर से जाते समय देवी दुर्गा की पूजा की थी आगे चलकर द्वापर में राजा सुरथ ने यहा यह मंदिर बनवाया पहाड़ में स्थापित प्रतिमा को लाकर मन्दिर में स्थापित किया राजा सुरथ ने देखा की यहा का कुण्ड रुधिर से भरा हुआ है तो उन्होंने सोचा की दुर्गा को बलि प्रिय है अतः उन्होंने अनेक जीवो की बलि यहा दी इसके बाद जब राजा सुरथ ने अपना शरीर त्याग किया तब यमराज ने कहा तुमने बहुत पूर्ण किये है स्वर्ग सुख तुझे मिलना चाहिए किन्तु तूने अनेक जीवो का वध किया है अतः पहले उन योनियों में तू पहले जन्म ले फिर बाद में तुझे स्वर्ग सुख प्राप्त होगा
इस प्रकार चूंकि राजा सुरथ ने चैत्र शुक्ल के नवरात्र में इस मंदिर का निर्माण करवाया था अतः वासन्तिक नवरात्र में यहा लोग दर्शन करने आने लगे थे तथा शारदीय नवरात्र में भगवान् श्री राम के दर्शन करने के कारण इस नवरात्र में भी लोग देवी की पूजा करते है इस स्थान पर पूरे सावन महीने लोग देवी का दर्शन पूजन करने तथा दाल भाटी लिट्टी चोखा बनाने खाने आते है
सावन के प्रत्यक मंगलवार को यहा मेला लगता है सबसे अधिक भीड़ चौथे और कभी -कभी पड़ने वाले पाचवे मंगल को भी होती है और कभी -कभी सच्चे सिद्ध साधको का भी यहा आगमन होता रहता है इस दुर्गा मंदिर के ठीक सौ मीटर आगे काली खोह है जहा माँ काली की प्रतिमा स्थापित है यह स्थान भी प्राकृतिक सुषमा से भरा हुआ है तथा यही एक पानी का सोता भी है
जिससे अत्यन्त मीठा तथा सुपाच्य जल निकलता है यह स्थान एकांतिक साधना के लिए सर्वथा उपयुक्त है अधिकतर साधक अपनी योग एवं तांत्रिक साधना यही से सम्पन्न करते है कालीखोह के सम्बन्ध में अनेक कथाएं प्रचलित है पहले जब आवागमन के साधन कठिन थे तथा यहा हिंसक जीवो की बहुलता थी तब यहा अत्यंत सिद्ध कोटि के ही रह पाते थे
लेकिन अब ऐसी बात नही है इस समय दुर्गा खोह में नियमित आते -जाते रहते है और यहा दोनों स्थानों पर पुजारी सर्वदा निवास करते है चुनार क्षेत्र की देवी दुर्गा और देवी काली सर्वमनोकामना पूर्ण करने वाली है इस लिए यहा मनवतिया मानने तथा इन्हें उतरने वृद्ध ,युवा नर -नारी सभी आते है और देवी की स्तुति इस प्रकार कर अपनी मनोकामना पूरी करते है ।
जय। माँ दुर्गा देवी
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