चुनार की मूर्ति कला : सम्भवतः प्रागैतिहासिक काल से ही हमारे पूर्वज मृदमंद तथा मूर्तियों के निर्माण में रुचि लेने लगे थे मोहनजोदड़ो, हड़प्पा तथा सिंधु घाटी के खुदाई में मिली मिट्टी की बनी वस्तुओ के मिलने से इसकी प्राचीनता प्रकट होती है
हजारो वर्षो तक प्राचीन यह मूर्ति कला आज काफी विकसित हो चुका है अब तो मिट्टी के अतिरिक्त चीनी मिट्टी तथा प्लास्टर आफ पेरिस की बनी कलात्मक चीजे काफी प्रचलित हो गयी है मिट्टी की बनी यह वस्तुए ऐसे तो देश के अनेकों भाग में बनती है किन्तु #चुनार की बनी यह मुर्तिया भी खूब प्रचलित है बहुत पहले वंश परम्परा से जुड़े लोग ही इस क्षेत्र में थे
लेकिन आज रोजगार के अवसर न बढ़ने के कारण अन्य लोग भी इसे व्यवसाय के रूप में अपनाने लगे है विशेषकर चीनी मिट्टी तथा प्लास्टर आफ पेरिस बनी मूर्तियो के साथ ऐसा हो रहा है जबकि चुनार के लाल मिट्टी के बने पात्रो के साथ अब भी पारंपरिक लोग इससे जुड़े है
मृद मूर्ति कला का इतिहास :
अपने यहा किसी भी कला के विकास और आरम्भ होने का प्रमाणिक इतिहास उपलब्ध नही है ठीक यही बात चुनार की मृद कला की भी है वैसा लोगो का मानना है कि मिट्टी के पात्रो का प्रयोग चुनार में सम्राट अशोक के काल से हो रहा है तथ्य चाहे जो भी हो किन्तु इसके विकास का चरोमत्कर्ष मुगल काल मे हुआ तब से यह कला यहा चुनार में कुटीर उधोग के रूप में वर्तमान है
चुकी मीरजापुर जनपद का यह ऐतिहासिक नगर गंगा तट पर स्तिथ है अतः यहा गंगा से मिलने वाली मिट्टी से ही विभिन्न प्रकार के पात्र तथा मुर्तिया तथा अन्य सजावटी चीजे बनाई जाती है लाल मिट्टी के नाम से विख्यात यह कला , काल के अनेक थपेड़े सहकर भी आज अपना अस्तित्व बनाये हुए है
गंगा तट से सबसे पहले इन पात्रो के निर्माण के लिए उपयुक्त मिट्टी लायी जाती है इसके पश्चात इसे अच्छी तरह से रौंद कर कुछ चीजें चाक पर तो कुछ चीजें साँचे में डालकर तैयार की जाती है इन्हें अच्छी तरह सुखाकर तब भट्टियों में 700-800 डिग्री फारेनाइट तापमान पर पकाया जाता है
इससे यह चीजे लाल हो जाती है इसी के कारण इसे लाल मिट्टी के पात्र कहा जाता है इसके बाद इन कलात्मक वस्तुओ को विभिन्न रासायनिक घोल में डुबाकर निकाल लिया जाता है धूप में अच्छी तरह सूख जाने पर इन्हें फिर एक निश्चित ताप क्रम पर पकाया जाता है
अब दूसरी बार पकाये जाने पर इनका रूप निखर जाता है यह पालिश चपड़े की होती है इन्हें लुक के बर्तनों के नाम से भी जाना जाता है विभिन्न रंगों के छिटदार पात्र अब अंतिम फिनिसिंग के बाद बिक्री के लिए भेज दिए जाते है इन वस्तुओं को तैयार होने में कौन सी चीज किस मात्रा में मिलायी जाती है इसका भेद गुप्त रहता है यह व्यवसाय पूर्ण रूप से पैतृक एव गोपनीय है कहा जाता है
यहा के कुम्भार रँगने वाले रासायनिकों का अनुपात अपनी लड़कियों को भी नही बताते की यह कला उनके व्याह के बाद किसी अन्य जगह न चली जाए पालिश किये जाने वाला यह मिश्रण कब और कहा से आया इसकी प्रामाणिक जानकारी नही है कुछ लोग कहते है चुनार में हजारों वर्ष पहले मिट्टी की कलात्मक वस्तुए बनती थी
किन्तु इस पर वर्तमान में नए आकार से पालिश करने की विधि किसी मुहम्मद सादिक नाम के व्यक्ति द्वारा लायी गयी इसलिए हिन्दू कुम्हारो के अतिरिक्त एक दो मुस्लमान परिवार भी इस धंधे से जुड़े है इस मिट्टी से बने कलमदान, गुलदस्ते, कृष्णपयला तथा उपयोगी बर्तन तथा मुर्तिया अपना विशिस्ट स्थान रखती है प्रायः पूरे देश के रेलवे स्टालो पर चुनार की मूर्ति बिकती हुई दिखती देखने को मिल जाती है
तथा चीनी मिट्टी के बने पात्रो एव प्लास्टर आफ पेरिस से बनी इंद्रधनुषी रंगों से सज्जित वस्तुए सात समंदर पार तक अपनी ख्याति फैलाये हुए थे यहा के बने समाधि शिलालेख जो इटली के काले तथा संगरमरमरो के अलावा चुनार के गुलाबी और बलुई पत्थरों के बने होते थे इसी के फलस्वरूप जब अंग्रेजो द्वारा कब्रो पर लगाये जाने वाले स्मारक शिलालेखों की मांग हुई तो यहा के कारीगरों और शिल्पियों ने इटली के काले - सफेद एव राजस्थान के मकराना के सगमर्मरो स ऐसे भव्यतम स्मारक ,शिलालेख तैयार किये
जिसे देखकर अंग्रेजो ने दांतो तले उंगली दबा लिये वैसे तो चुनार के किले के पीछे जरगो नदी के उस पार तथा लोवर लाइन के दो स्थानों पर इस शिल्पकारों के हाथों से बना कब्रिस्तान आज भी वर्तमान है किंतु रखरखाव न होने के कारण नष्ट हो जा रहे है बेशक अब आकर उन देशो के निवासी अपने परिजनों का कब्र यहा ढूंढना चाहे तो जिन्हें दफनाये हुए बरसो गुजर गए तो कुछ का पता अब भी लग जायेगा
लेकिन अधिकांश के कब्रो पर लगे शिलालेख काल के गाल में समा जाने के कारण उनका पता देने में असमर्थ होंगे समय का चक्र सर्वदा चलता रहता है उत्थान एव पतन इस चक्र की नियति है इसी नियति के कारण जब अपना देश स्वतन्त्र हुआ जब अंग्रेज यहा स चले गए तन उनके साथ ही चुनार का यह व्यापार भी धीर-धीरे अंतिम सांस लेता हुआ काल कलवित हो गया क्योंकि यह उधोग पूरी तरह से अंग्रेजो पर आश्रित था
इसलिए उनके जाने के बाद संगरमरमर उधोग ही चुनार से एकदम समाप्त हो गया पहले सन्त महात्मा राजाओ आदि के स्मारक मुर्तिया आदि भी पर्याप्त बनती थी तो यह व्यपार अपने चरम उत्कर्ष पर था वैसे तो कुछ स्मारक और मुर्तिया अब भी बनती है किंतु उनकी संख्या बहुत कम है
आज सीमेन्ट तथा कंकरीट के फैलते जंगलो में संगरमरमरो की यह शिल्प कला स्वयं दफन हो गयी है जिन दिनों यह व्यापार अपने चरम उत्कर्ष पर था उस समय की मेमोरियल स्टोन कम्पनी तुलसी एन्ड कम्पनी इण्डियन स्टोन कम्पनी तथा ठाकुर एव सन्स कम्पनी अब मात्र ठाकुर एण्ड संस् कम्पनी ही बची है
शेष कम्पनिया काम के अभाव में बंद हो चुकी है अभी कुछ वर्षों पहले ही बौद्धगया में एक जापानी संस्था के भगवान बुद्ध की एक विशाल मनोमुग्धधारी चुनार के गुलाबी पत्थरो से ठाकुर एन्ड संस् के कम्पनी द्वारा बनवाई गई है
जिसकी सर्वत्र प्रंशसा हुई है ऐसे
अब यह उधोग पूर्णतः ठप हो गया है इतिहास के पन्नो पर उत्तर प्रदेश के
मीरजापुर जनपद का यह ऐतिहासिक नगर सदियों तक अपनी कला के लिए अवश्य अंकित
रहेगा ।
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