सावन के आगमन के साथ ही नगर के आस पास पेड़ो पर झूले पड़ जाते है और कजली के स्वर गूँजने लगते है ।
कैसे खेले जाई सावन में कजरिया।
बदरिया घेरे आयी नन्दी ।।
यहा कजली बहुत सालो से गाई जाती है मीरजापुर चौक बाजार के जवाहर लाल मुहल्ला मो. खलील यहा के प्रसिद्ध गायक रहे इनमे बरकतउल्ला और मोहम्मद खलील तो पूरे देश मे जाकर कजली गाते रहे उन दिनों जब लाउडस्पीकर और बिजली नही थी तब गैस के हण्डो और उचे मंचो से यह अपने गले का कमाल दिखाते थे हजारो लोग इनका कजली गीत सुनते और नोटो की बरसात करते थे ।
आई बरखा बहार पड़े बुदनी फुहार ।
गोरी भीजत अंगनवा अरे सावरिया ।।
बरकतउल्ला की मशहूर कजली थी -
आठो पहर, साझो भोर ।
निहारत रहू मै रहिया तोर ।।
लगा के डोर गए केह ओर ।
न आये बलमु मोर ।।
चुनार के पास (शिखड़ ) में बफत्त थे इनकी लिखी और गयी कजलिया आज कई दशक बाद भी लोगो के जुबान पर रहती है ।
एक पंक्ति देखे-
बड़े-बड़े मनई पाव में नाही पनहीकजली पर्व पर यहा अब भी गंगा किनारे तैराकी और खेल कूद तथा कुश्ती दंगल का आयोजन होता है रात्रि में बालूघाट स्तिथ शंकर जी का श्रृंगार एवं कजली गायन की परम्परा आज भी बनी हुयी है एक समय था जब यहा बड़े बड़े कजली दंगल का आयोजन होता था इनमे अपने क्षेत्र के मशहूर गायक आते थे रात्रि 8 बजे से शुरू होकर सुबह 8 बजे समाप्त होने वाले इस कजली दंगल में दूर-दूर से श्रोता आते थे
लगाये सिर छाता ,अरे सावरिया ।
30- 35 वर्षो तक इनका खूब चलन रहा लेकिन टीवी ने सारे लोकगीतों के गायको को एकदम निगल लिया लोग अपने कमरों में बंद हो गए यहा तक कि पड़ोसी धर्म भी अब नही निभाया जा रहा हिन्दू -मुस्लिम और जातिवाद के राक्षस ने आपसी भाई -चारा और एक दूसरे के त्योहवारो में सरीख होने की सारी परम्पराओ को इस आग में जला दिया और टेलीविजन ने सारे सामाजिक सरोकार पर्व-त्योहवारो को फीका कर दिया है ।
हमारी प्राचीन संस्कृति समाप्त हो रही है और इसके बदले एक नयी अपसंस्कृति के हम गुलाम हो रहे है जो शुभ नही है ।
कजरी पर्व के अलावा हरितालिका तीज में भी चुनार कजली गायन का आयोजन चौक, चुनार में होता था और आपरह्न में सराय के पास कुश्ती दंगल और रात्रि को चौक पर कजली दंगल कराते रहे कजली गायकी में स्थान रखने वाला यह नगर चुनार बिरहा गायन में भी आगे है यही के सरैया सिकन्दर पुर निवासी रेडियो एव दूरदर्शन कलाकर श्री मोहन यादव का नाम बहुत प्रसिद्ध है ।
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