विजयगढ़ दुर्ग सम्प्रति सोनभद्र जनपद के राबर्ट्सगंज में स्थित है. यह मिर्ज़ापुर से 60 किमी दक्षिण-पूर्व 12 मील और चुनार से ५० मील दक्षिण-पूर्व दिशा में स्थित है विजयगढ़ दुर्ग जिस पहाड़ी पर स्थित है यह पहाड़ी समुन्द्र तल से 2.017 फीट ऊँची है और मैदान से लगभग 800 फीट की ऊँचाई पर स्थित है.
यहाँ जिन दो मार्गो से पहुंचा जा सकता है उनमे से एक मार्ग गहर नदी के पुल से होकर जाता हैं. इस पुल पर एक अभिलेख लगा है. जिसके अनुसार यह पुल संवत 1929 में राजा बलवंत सिंह द्वारा बनवाया गया था.
लेकिन मिर्र्ज़ापुर गजेटियर के अनुमान के अनुसार संभवत: शेरशाह सूरी के समय में इस पुल का निर्माण हुआ होगा. इसमे क्रम चौडाई के ११ आर्क हैं. इसमे बड़ा दरवाजा भी है .
पुल से लगभग 100 फीट के बाद किले का दरवाज़ा है. जिसमे तीन दरवाजे है जो मुगलकालीन ढंग के है. और किले के निर्माण के काफी बाद के है. उसके अन्दर लगभग तीन मील की विस्तृत जगह है. जिसमे स्थान स्थान पर 15 तोपों का स्थान भी है,किले के चतुर्दिक कैमूर श्रृंखला की प्राक्रतिक सुषमा बिखरी हुयी है.
एक अनुमान के अनुसार क्षेत्र के कोल आदिवासियों के द्वारा यह दुर्ग का निर्माण हुआ. कुछ का कहना है की असुर और दानव शिल्पियों के द्वारा यह बनाया गया.
एक दन्त कथा के अनुसार दो दानवो के बीच दो स्थानों पर दुर्ग बनाने की शर्त लगी विजयगढ़ और कंडाकोट जो बड़हर परगने से पश्चिम 12 मील की दुरी पर राबट्सगंज के पास हैं.
आज भी यह स्थान पुरातात्विक महत्त्व का स्थान माना जाता है. विजयगढ़ के दानवो का कोई औजार गिर गया जिसे खोजने के लिए प्रकाश किया प्रकाश देख कर कंडाकोट के दानवो ने तह मान लिया विजयगढ़ पूरा बन गया और अपनी हार स्वीकार कर के कंडाकोट का कार्य अधुरा छोड़ कर भाग गए. विजयगढ़ एक रात में पूरा हो गया यही कथा चुनार गढ़ और मगनदीवान के बारे में भी कही जाती है.
समय बीतने के साथ अगोरी बड़हर के चंदेल राजाओं के शासन में यह दुर्ग आया. बाद में यह दुर्ग शेरशाह सूरी और बलवंत सिंह के ज़माने में क्रमश: बनता रहा. किद्वान्तियो के अनुसार इस किले के अन्दर ही अन्दर सम्बन्ध रोहतासगढ़ से भी है. शेरशाह सूरी का साम्राज्य समाप्त होने के बाद में बलवंत सिंह के हाथ में आया.
चेत सिंह से पराजित होने के बाद यह दुर्ग अंग्रेजो के अधिकार क्षेत्र में आ गया. दुर्ग के दरवाजे के पास सैयद जैनुलउद्दीन, जिन्हें मीरा साहब के नाम से जानते है उनकी यहाँ मज़ार है.
कहा जाता हैं कि ये संत शेरशाह सूरी के साथ आये थे और इन्होने एक भी मनुष्य या सैनिक को बिना हानि पहुचाये क्किले के ऊपर अधिकार करने में शेरशा की सहायता की. बलवंत सिंह के ज़माने की सुदी पंचमी संवत1829 की उनके एक सेनानी की भी समाधी यहाँ है.
मीर साहब की समाधी के पास एक तालाब है जो मीर सागर के नाम से जाना जाता है और उससे थोड़ी दुरी पर एक और तालाब है जिसे राम सागर के नाम से जाना जाता है. राम सागर की अतुल गहराईयों में चेत सिंह का बहुमूल्य खज़ाना छिपा है. इन दोनों तालाबो अथार्थ मीर सागर और राम सागर के बीच बलवंत सिंह द्वारा बनवाया हुआ शीश महल है.
इनके आलावा शेष महल क्रमश: ढहती जा रही है, छोटा दरवाज़ा जिससे होकर चेतसिंह पलायित हुए थे, वो बड़ा ही खुबसूरत बना हुआ है. आस पास की काफी ज़मीन स्थानीय लोगो द्वारा खजाने की तलाश में खोद दी गयी है.मंडल के वे दुर्ग जिनके बारे में यह विश्वास है कि वे असुरो द्वारा बनवाये गए है,
विजयगढ़ उनमे से एक है. प्रसिद्ध उपन्यासकार बाबु देवकीनन्दन खत्री ने अपने तिलस्मी उपन्यास चंद्रकांता में चंद्रकांता को विजयगढ़ की ही राजकुमारी बताया है. मंडल के यह दो दुर्ग जिनके बारे में यह विख्यात है कि एक रात में असुरों द्वारा बनवाये गए दुर्ग देवीकी बाबू के उपन्यास के पर्मुख केंद्र थे. यह दूर अपने साथ एक बड़ी सांस्कृतिक यात्रा की समेटे हुए है.
Article Source : mirzapurdarshan
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